जानिए मर्यादा पुरूषोत्तम प्रभु श्री राम की पूरी कहानी,
आर्टिकल: स्वामी धर्मबंधुजी, राजकोट
मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम जी का परिचय:
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम चन्द्र जी भारतवर्ष (आर्यावर्त) के अयोध्या राज्य में सूर्य वंश के अन्तर्गत इच्छवाकु वंश में महारानी कौशल्या महाराज दशरथ के यहाँ त्रेता युग जन्म लिए।उनकी बाल्यकाल की शिक्षा महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल में हुईं। 16 वर्ष की आयु से 25 वर्ष पर्यन्त उनकी शिक्षा महर्षि विश्वामित्र के सानिध्य में सम्पूर्ण हुआ।25 वर्ष की आयु में 18 वर्ष की राजकुमारी महाराज जनक की सुपुत्री सीता से विवाह हुआ । 25 वर्ष से 37 वर्ष की आयु तक सभी राजकुमार अपने परिवार और प्रजा के साथ आदर्शमय जीवन व्यतीत किए , किन्तु जब 37 वर्ष की आयु में महाराज दशरथ ने श्रीराम का राज्याभिषेक करना चाहा तो महारानी कैकेय्यी के वरदान के कारण उनको में 14 वर्ष का वनवास हुआ। वनवास में उनकी धर्मपत्नी सीता का लंका के राजा रावण द्वारा हरण किया गया तत्पश्चात श्री राम ने सुग्रीव आदि से मित्रता करके समुन्द्र पर पुल बनाकर लंका पहुँचें और युद्ध में रावण को परास्त किया । वनवास की अवधि समाप्त होने पर अयोध्या वापस आए वहाँ उनका राज्याभिषेक हुआ और उन्होंने लगभग ३६ वर्ष तक उन्होंने अयोध्या पर शासन किए।
श्री राम के शील स्वभाव का परिचय कराते हुए महर्षि बाल्मीकी जी लिखते है।
*धर्मज्ञ सत्यसन्धश्च प्रजानां च हिते रतः।*
*यशस्वी ज्ञान सम्पन्न शुचिर्वश्यः समाधिमान्।।(व. रा. बा, सर्ग 1/ 12)*
मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम जी - धर्मज्ञ=धर्म को विधिवत रूप से जानने वाले,
सत्यप्रतिज्ञ= सत्य को धारण करने वाले,
प्रजा के हित व कल्याण के लिए निरन्तर प्रयत्न करने वाले,
यशस्वी= उनका यश और कीर्ति सभी दिशाओं में व्याप्त था,
ज्ञानसम्पन्न:= वे सम्पूर्ण विद्याओं से सुशोभित थे, वह निरन्तर अपने शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा को पवित्र रखते थे,
वश्य:= वे अपने सम्पूर्ण इंद्रियो को नियंत्रित रखते थे और नित्यप्रति समाधि लगाते थे।
*धर्मज्ञ सत्यसंवश्च शीलवाननसूयकः।*
*क्षान्तः शान्त्वयिता श्लक्ष्णः कृतज्ञो विजितेन्द्रियः।।*
*अयो, सर्ग 2/31)*
वे धर्मज्ञ,= धर्म को धारण करने वाले, सत्य का आचरण करने वाले शीलवान, किसी के प्रति ईर्ष्या न करने वाले, सहनशील स्वभाव वाले , सबको सान्त्वना देने वाले , सभी के प्रति कोमल स्वभाव रखने वाले , कृतज्ञ यानि उपकार को न भूलने वाले और जितेन्द्रिय अर्थात् कानो से सुनकर , हाथों से छूँ कर , आँखो से देखकर , नाक से सूँघकर मुँह से खाकर न प्रसन्न होते थे और न दुःखी होते थे।
*मृदुश्च स्थिरचित्तश्च सदा भव्योऽनसूयकः।*
*प्रियवादी च भूतानां सत्यवादी च राघवः॥* *वा०रा. अयो. सर्ग 2/32)*
वे बड़े ही मृदु= सौम्य स्वभाव के, स्थिरचित्त= चित्त की वृत्तियों को संयमित रखने वाले ,सदासुन्दर तथा मनोहर दिखने वाले , किसी के प्रति ईर्ष्या न करने वाले, मधुर भाषण यानि सत्य और प्रिय शब्दों का उपयोग सबके प्रति करते थे।
*स च नित्यं प्रशान्तात्मा मृदुपूर्व च भाषते ।*
*उच्यभानोऽपि पुरुषं नोत्तरं प्रतिपद्ते।।* वा. रा. अयो, सर्ग 1/10)
वे शान्तचित्त श्रीराम सदा मधुर वाणी में वार्तालाप करते थे और किसी के कठोर प्रश्न का उत्तर अशिष्टता से नहीं देते थे।
वे नित्य कर्म संध्या वन्दना समय पर करते थे महर्षि बाल्मीकी जी लिखते हैं-
*कौशल्या सुप्रजा राम पूर्वा संध्या प्रवर्तते।*
*उत्तिष्ठ नरशार्दूल कर्तव्यं दैव माद्दीकम् ।।*
वा. रा. बा. सर्ग 23/2)
जब प्रातःकाल हुआ तो तब महामुनि विश्वामित्र ने पर्णशैय्या पर सोये हुए राम से कहा हे कौशल्या के सुयोग्य पुत्र राम! हे नरशार्दूल! उठो, यह प्रातःकालीन संध्या का समय है। और शौचादि क्रिया से निवृत्त होकर , देव यानि ईश्वर का ध्यान करो और अग्निहोत्र अर्थात् यज्ञ करो।
*तस्यर्षे: परमोदारं वचः श्रुत्वा नृपात्मजौ।*
*स्त्रात्वा कृतोदकौ वीरौ जेपतुः परमं जपम्।।* वा. रा. बा. सर्ग 2/3)
महर्षि के उदार तथा प्रिय वचन सुनकर राम लक्ष्मण उठे। उन्होंने स्नान करके सूर्य को अर्घ्य दिया और गायत्री मंत्र का जप किया।
श्रीराम के स्वभाव और गुणों के बारे में महर्षि लिखते हैं -
*राजविद्याविनीतश्च ब्राह्मणानामुपासकः।*
*ज्ञानवान् शीलसम्पन्नो विनीतश्च परंतपः।।*
श्रीराम जी राज विद्या में विशेष रूप से ज्ञान को प्राप्त किए थे, वे ज्ञान विज्ञान में पारंगत तथा ब्राह्मणों यानि चरित्रवान ज्ञानियों के उपासक और सुशील,विनय संपन्न एवं परम तपस्वी थे
*यजुर्वेदविनीतश्च वेदविद्भि़ः सुपूजितः|*
*धनुर्वेदे च वेदे च वेदाङ्गेषु च निष्ठितः||*
श्रीराम जी यजुर्वेद के ज्ञान को विशेष रूप से प्राप्त किए थे, वे वेद विद्वानों के द्वारा भी पूजनीय थे तथा धनुर्वेद और चारों वेद एवं वेदाङ्गों के पारंगत विद्वान थे
*बभूव भूयो भूतानां स्वयंभूरिव समस्त: ।।*
*सर्वे वेद विदः शूराः सर्वे लोकहिते रताः।।*
अर्थात् श्रीराम ही नही अपितु वे चारों राजकुमार ब्रह्मा के समान विद्वान , शूरवीर पराक्रमी और सभी प्राणियो का कल्याण करने वाले थे।
श्रीराम ही नही यद्यपि उनके परम भक्त हनुमान भी परम विद्वान थे।किष्किन्धा में हनुमान जी का लक्षमण से परिचय कराते हुए श्री राम कहते है-
*नानृग्वेदविनी तस्य यजुर्वेद धारिणः ।*
*नासामवेदविदुषः शक्यमेवं प्रभाषितुम् **।। वा.रा. किष्कि, सर्ग 3/28)
जिसने ऋग्वेद की शिक्षा न पायी हो, जिसे यजुर्वेद का ज्ञान न हो और जो सामवेद का विद्वान न हो, वह ऐसी बाते नहीं कर सकता।
*नूनं व्याकरणं कृत्स्त्रमनेन बहुधा श्रुतम्।*
*बहु व्याहरतानेन न किंचिदपशब्दितम्।।* वा. रा. किर्थिक सर्ग 3/20)
ऐसा प्रतीत होता है कि इन्होंने व्याकरण शास्त्र का भली भाँति अध्ययन किया है। यही कारण है कि अत्यधिक बातें करने पर भी इन्होंने व्याकरण सम्बन्धी कोई गलती नहीं की है।
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम जब अपने पिता से वनों की ओर प्रस्थान करने की आज्ञा लेने उनके पास पहुँचे तो उन्होंने श्रीराम से कहा-
*अहं राघव कैकेय्या वरदानेन मोहितः।।*
*अयोध्यायां त्वमेवाद्य भव राजा निग्रहय माम्।।**
हे राम! मैं कैकेयी को वरदान देकर मैं ऊसमें फँस गया हूँ । अतः तुम मुझे बन्दी बना कर जेल में डाल दो, और आज ही अयोध्या के राजा बन जाओ।
पिता जी की ऐसी आज्ञा सुनकर , श्रीराम ने हाथ जोड़कर उत्तर दिया -
*भवान् वर्षसहस्राय पृथिव्या नृपते पतिः।*
*अहं त्वरण्ये वत्स्यामि न मे राजस्य कांक्षिता।।*
पिता जी आप सहस्रों वर्ष तक राजा बनकर पृथ्वी पर शासन करें। मैं तो अब बन में जाकर ही निवास करूँगा, मुझे राज्य की आकांक्षा नही है।
यह है भारतीय संस्कृति का परिचय। अब राम मन्दिर तोड़वाने वाले बाबर के वंशजो की तस्वीर देखिए। मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब ने दिल्ली का राज्य हथियाने के लिए अपने भाइयों की नृशंस हत्या की और अपने पिता को बन्दी बनकर कारावास में डाल दिया । जेल में भी उसे अनेक कष्ट दिए । इस घटना का उल्लेख सभी इतिहासकारों ने किया है। परन्तु आकिल खाँ ने अपने ग्रन्थ “ वाक आत आलमगीरी” में इस घटना का बिस्तरपूर्वक वर्णन किया है और शाहजहाँ का अपने पुत्र के नाम एक पत्र भी उद्धृत किया हैं। जिसमें उन्होंने लिखा था-
*ऐ पिसर तू अजब मुसलमानी,*
*कि ज़िन्दा। जानम ब। आब तरसानी।*
आफ्रींबाद हिन्दुवान सद बार,
में देहन्द पिदरे मुर्दारा वा दाइम आब।।
हे पुत्र! तूँ विचित्र मुसलमान है जो अपने जीवित पिता को पानी के लिए तरसा रहा है शत शत बार प्रशंसनीय है वो हिन्दू जो अपने मृत पिता को भी जल देते है यानि श्राद्ध तर्पण करतें हैं।
हमारे विचार से श्रीराम के जीवन से शिक्षा/-
१:- अपना आँसू खुद पोंछो दूसरे पोछेंगे तो सौदा करेंगे जैसे सुग्रीव ने पहले अपना खोया हुआ राज्य प्राप्त किया फिर राम की सहायता किया। उसी प्रकार विभीषण सम्मानित जीवन और राज्य का प्रलोभन पाया तब श्रीराम की सहायता की।
२:-अपने मुश्किलों का सामना करने की क्षमता स्वयं में पैदा करो परिवार और रिश्तेदार की सहायता मत लो नहीं तो ये लोग पूरा जीवन उपहास करेंगें।जैसे राम ने अयोध्या और जनक से अपनी मुश्किल दूर करने के लिए कोई सहायता नही ली।
३:- अधर्म और अनीति की बुनियाद पर साम्राज्य स्थापित मत क़रो क्योंकि इनकी दीवारें कमजोर होती है।
४:- आदर्श प्रस्थापित करने के लिए सर्वस्व त्याग के लिए तत्पर रहना।
५:-राष्ट्र, पिता- पुत्र का आदर्श , भाई- भाई के प्रति समर्पण , पति -पत्नी का प्रेम और शासक और प्रजा धर्म यानि कर्तव्य पालन की सत्य और निष्ठा के साथ त्याग तथा बलिदान के लिए तत्पर रहना
इत्यादि आदर्शों को अपने जीवन में धारण करना ही श्रीराम की भक्ति है।